यह तो प्रदेश की राजनीति के साथ उलझते-सुलझते रिश्तों की बहुत साफ तस्वीर है। कल तक शरमाती, झिझकती, हिचकती नजर आने वाली समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव की बहू डिंपल यादव कल सिर्फ अखिलेश यादव की आत्मविश्वास से भरी जीवनसंगिनी और सियासी हमसफर के रूप में नजर आईं। कानपुर के साथ ही उन्नाव की जनसभाओं में डिंपल की जुबां पर एक बार भी ‘नेताजी’ का न आना बेवजह तो नहीं समझा जा सकता।
यह कानपुर-बुंदेलखंड का क्षेत्र है। इस जमीं ने सूबे के सबसे बड़े सियासी परिवार के कई पौधों को बड़ा होते देखा है। खुद पहलवान मुलायम सिंह यादव और फिर उनके बेटे अखिलेश यादव को राजनीति का सूरमा बनते देखा है।
डिंपल यादव को भी इसी क्षेत्र के कन्नौज ने दिल्ली के दरबार तक पहुंचाया। पिता से ही विरासत में मिली यह सीट अखिलेश ने डिंपल को सौंपी। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव हों या सांसद डिंपल, शायद ही ऐसा हुआ हो, जब किसी भी कार्यक्रम के मंच से बार-बार मुलायम सिंह यादव का नाम न लिया गया हो। मगर, कल कानपुर, उन्नाव, झींझक आदि जगह हुईं सभाएं एक बात की ओर बार-बार ध्यान खींचती हैं। डिंपल ने एक स्थान पर बेशक यह कह दिया हो कि परिवार में कोई फूट नहीं है। सभी बड़ों का आशीर्वाद मुख्यमंत्री के साथ है, लेकिन एक बार भी ‘नेताजी’ का नाम न लेना तो इशारा यही करता है कि राजनीतिक मसलों को लेकर उठी खटास का असर अभी रिश्तों में रह गया है।पारिवारिक संघर्ष में डिंपल अपने पति अखिलेश के साथ ही मजबूती से खड़ी हैं।
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